कुछ पल जगजीत सिंह के नाम

जनवरी 7, 2007

क्या बताऍ के जॉ गई कैसे


क्या बताऍ के जॉ गई कैसे
फिर से दोहराऍ वो घड़ी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

किसने रास्ते मे चॉद रखा था
मुझको ठोकर लगी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

वक़्त पे पॉव कब रखा हमने
ज़िदगी मुह के बल गिरी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

ऑख तो भर आई थी पानी से
तेरी तस्वीर जल गयी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

हम तो अब याद भी नही करते
आप को हिचकी लग गई कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

नवम्बर 2, 2006

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा


तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे
तेरे रिश्तों में तो दुनियाँ ही पिरो ली मैने

एक से घर हैं सभी एक से हैं बाशिन्दे
अजनबी शहर मैं कुछ अजनबी लगता ही नहीं
एक से दर्द हैं सब एक से ही रिश्ते हैं

उम्र के खेल में इक तरफ़ा है ये रस्सकशी
इक सिरा मुझको दिया होता तो कुछ बात भी थी
मुझसे तगडा भी है और सामने आता भी नहीं

सामने आये मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये
कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया

वो मेरे साथ ही था दूर तक मग़र एक दिन
मुड के जो देखा तो वो और मेरे पास न था
जेब फ़ट जाये तो कुछ सिक्के भी खो जाते हैं

चौधंवे चाँद को फ़िर आग लगी है देखो
फ़िर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
राख हो जायेगा जब फ़िर से अमावस होगी

अक्टूबर 30, 2006

है लौ ज़िंदगी


है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

कभी सामने आता मिलने उसे
बड़ा नाम् उसका है मशहूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

भवर पास है चल पहन ले इसे
किनारे का फदा बहुत दूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

सुना है वो ही करने वाला है सब
सुना है के इंसान मज़बूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

अक्टूबर 27, 2006

सहमा सहमा


सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है
सहमा सहमा डरा सा रहता है

इश्क में और कुछ नहीं होता
आदमी बावरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है
सहमा सहमा डरा सा रहता है

एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
एक पल देख लूँ
एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया सब जरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है
सहमा सहमा डरा सा रहता है

चाँद जब आसमाँ पे आ जाए
आप का आसरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है
सहमा सहमा डरा सा रहता है
सहमा सहमा डरा सा रहता है

अक्टूबर 25, 2006

फुलों की तरह लब खोल कभी


फुलों की तरह लब खोल कभी
ख़ूश्बू की ज़ुबा मे बोल कभी
अलफ़ाज़ परखता रेहता है
आवाज़ हमारी तोल कभी
अन्मोल नहीं लेकिन फिर भी
पूछो तो मुफ़्त का मोल कभी
खिड़की में कटी है सब राते
कुछ चौर्स थीं, कुछ गोल कभी
ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डांवां डोल कभी

अक्टूबर 24, 2006

ज़िंदगी क्या है जानने के लिये


ज़िंदगी क्या है जानने के लिये
ज़िंदा रहना बहुत जरुरी है
आज तक कोई भी रहा तो नही

सारी वादी उदास बैठी है
मौसमे गुल ने खुदकशी कर ली
किसने बरुद बोया बागो मे

आओ हम सब पहन ले आइने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा
सारे हसीन लगेंगे यहाँ

है नही जो दिखाई देता है
आइने पर छपा हुआ चेहरा
तर्जुमा आइने का ठीक नही

हम को गलिब ने येह दुआ दी थी
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
ये बरस तो फकत दिनो मे गया

लब तेरे मीर ने भी देखे है
पखुड़ी एक गुलाब की सी है
बात सुनते तो गलिब रो जाते

ऐसे बिखरे है रात दिन जैसे
मोतियो वाला हार टूट गया
तुमने मुझको पिरो के रखा था

अक्टूबर 23, 2006

आप अगर इन दिनो यहाँ होते


आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते
आप अगर इन दिनो यहाँ होते

वक़्त गुज़्रा नही अभी वरना
रेत पर पाँव के निशाँ होते

मेरे आगे नही था अगर कोई मेरे
पीछे तो कारवा होते

तेरे साहिल पे लौट कर आती
अगर उम्मीदो के बादबा होते

आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते
आप अगर इन दिनो यहाँ होते

अक्टूबर 20, 2006

नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चल


नज़र उठाओ ज़रा तुम तो क़ायनात चले,
है इन्तज़ार कि आँखों से “कोई बात चले” ||

तुम्हारी मर्ज़ी बिना वक़्त भी अपाहज है
न दिन खिसकता है आगे, न आगे रात चले ||

न जाने उँगली छुडा के निकल गया है किधर
बहुत कहा था जमाने से साथ साथ चले ||

किसी भिखारी का टूटा हुआ कटोरा है
गले में डाले उसे आसमाँ पे रात चले ||

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