कुछ पल जगजीत सिंह के नाम

नवम्बर 2, 2007

एक पुराना मौसम लौटा


एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी,
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों तनहाई भी,

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं,
कितनी सौंधी लगती है तब माझी की रुसवाई भी,

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में,
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी,

ख़ामोशी का हासिल भी इक लंबी सी ख़ामोशी है,
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी,

एक परवाज़ दिखाई दी है


एक परवाज़ दिखाई दी है,
तेरी आवाज़ सुनाई दी है,

जिस की आँखों में कटी थीं सदियां,
उस ने सदियों की जुदाई दी है,

सिर्फ़ एक सफ़हा पलटकर् उस ने,
बीती बातों की सफ़ाई दी है,

फिर वहीं लौट के जाना होगा,
यार ने कैसी रिहाई दी है,

आग ने क्या क्या जलाया है शव पर,
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है,

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते


हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते,
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते,

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन,
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते,

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा,
जानेवालों के लिये दिल नहीं तोड़ा करते,

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो,
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते,

नवम्बर 1, 2007

आँखों में जल रहा है क्यूं बुझता नही धुँआ


आँखों में जल रहा है क्यूं, बुझता नही धुँआ,
उठता तो है घटा सा बरसता नही धुँआ,

चूल्हा नही जलाया य बस्ती ही जल गई,
कुछ रोज हो गए हैं अब उठता नही धुँआ,

आँखों से पोंछने से लगा आंच का पता,
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नही धुँआ,

आँखों से आँसू के मरासिम पुराने है,
मेहमान ये घर में आयें तो चुभता नही धुँआ,

अक्टूबर 26, 2007

ज़िंदगी यूँ हुयी बसर तन्हा


ज़िंदगी यूँ हुयी बसर तन्हा,
काफिला साथ और सफर तन्हा,

अपने साये से चौंक जाते हैं,
उम्र गुजरी है इस कदर तन्हा,

रात भर बोलते हैं सन्नाटे,
रात काटे कोई किधर तन्हा,

दिन गुज़रता नहीं है लोगो में,
रात होती नहीं बसर तन्हा,

हमने दरवाज़े तक तो देखा था,
फ़िर न जाने गए किधर तन्हा,

वो ख़त के पुर्जे उडा रहा था


वो ख़त के पुर्जे उडा रहा था,
हवाओं का रूख दिखा रहा था,

कुछ और भी हो गया नुमाया,
मैं अपना लिखा मिटा रहा था,

उसी का इमा बदल गया है,
कभी जो मेरा खुदा रहा था,

वो एक दिन एक अजनबी को,
मेरी कहानी सुना रहा था,

वो उम्र कम कर रहा था मेरी,
मैं साल अपने बढ़ा रहा था,

शाम से आँख में नमी सी है


शाम से आँख में नमी सी है,
आज फ़िर आपकी कमी सी है,

दफ़न कर दो हमें की साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,

वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है,

कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी,
एक तस्लीम लाज़मी सी है,

जनवरी 7, 2007

क्या बताऍ के जॉ गई कैसे


क्या बताऍ के जॉ गई कैसे
फिर से दोहराऍ वो घड़ी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

किसने रास्ते मे चॉद रखा था
मुझको ठोकर लगी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

वक़्त पे पॉव कब रखा हमने
ज़िदगी मुह के बल गिरी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

ऑख तो भर आई थी पानी से
तेरी तस्वीर जल गयी कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

हम तो अब याद भी नही करते
आप को हिचकी लग गई कैसे
क्या बताऍ के जॉ गई कैसे

नवम्बर 2, 2006

तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा


तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा
अजनबी चेहरे भी पहचाने से लगते हैं मुझे
तेरे रिश्तों में तो दुनियाँ ही पिरो ली मैने

एक से घर हैं सभी एक से हैं बाशिन्दे
अजनबी शहर मैं कुछ अजनबी लगता ही नहीं
एक से दर्द हैं सब एक से ही रिश्ते हैं

उम्र के खेल में इक तरफ़ा है ये रस्सकशी
इक सिरा मुझको दिया होता तो कुछ बात भी थी
मुझसे तगडा भी है और सामने आता भी नहीं

सामने आये मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये
कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया

वो मेरे साथ ही था दूर तक मग़र एक दिन
मुड के जो देखा तो वो और मेरे पास न था
जेब फ़ट जाये तो कुछ सिक्के भी खो जाते हैं

चौधंवे चाँद को फ़िर आग लगी है देखो
फ़िर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
राख हो जायेगा जब फ़िर से अमावस होगी

अक्टूबर 30, 2006

है लौ ज़िंदगी


है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

कभी सामने आता मिलने उसे
बड़ा नाम् उसका है मशहूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

भवर पास है चल पहन ले इसे
किनारे का फदा बहुत दूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

सुना है वो ही करने वाला है सब
सुना है के इंसान मज़बूर है

है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर
है लौ ज़िंदगी

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